जुर्म से मुकाबिल पुलिस और आधारभूत सुविधाओं की कमी

भारत में अपराध की सुर्खियां बटोरती खबरों में  पुलिस को अक्सर आरोपित किया जाता है. लेकिन क्या आपको देश में पुलिस की दयनीय हालत के बारे में पता है ? 

 

(इस वीडियो में बेहद अभद्र भाषा इस्तेमाल की गई है. लेकिन यह दिखाता है आए दिन पुलिसकर्मियों को  कैसे कैसे पैसे और रसूख में डूबे कमीने लोगों का सामना करना पड़ता है.)

ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरएंडडी) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. इसमें कहा गया है कि यह विभाग आधारभूत सुविधाओं और जवानों की भारी कमी से जूझ रहा है. देश में कुल 15 हजार 55 थानों में से 10 हजार 14 शहरी इलाकों में हैं और पांच हजार 25 ग्रामीण इलाकों में. बाकी थाने रेलवे पुलिस के हैं. आधारभूत सुविधाओं के मामले में पूर्वोत्तर के उग्रवादग्रस्त राज्य मणिपुर की तस्वीर आंख खोलने वाली है. राज्य के 43 थानों में कोई फोन या वायरलेस सेट नहीं है. इस मामले में यह पहले नंबर पर है. इसी तरह मध्य प्रदेश के 111 थानों में भी टेलीफोन नहीं है. इसके अलावा छत्तीसगढ़ के 161 थानों के पास अपना कोई वाहन नहीं है. अपराधों के लिए अक्सर सुर्खियां बटोरने वाले उत्तर प्रदेश में विकास के तमाम दावों के बावजूद अब भी 51 थानों में कोई टेलीफोन तक नहीं है. देश के अग्रणी राज्यों में शुमार होने का दावा करने वाले पश्चिम बंगाल में भी तस्वीर बेहतर नहीं है. पांच लाख पदों के खाली रहने की वजह से पुलिसकर्मियों पर काम का भारी दबाव है. इस वजह से वे मानसिक अवसाद से ग्रस्त हो जाते हैं. साइबर अपराधों की तादाद में लगातार वृद्धि ने पुलिसवालों के काम का बोझ और बढ़ा दिया है.
केंद्रीय गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पुलिस बल आधारभूत ढांचे की भारी कमी से जूझ रहा है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के चार सौ से ज्यादा थानों में एक अदद टेलीफोन तक नहीं है. इसी तरह लगभग दो सौ थानों के पास अपना एक भी वाहन नहीं है. देश में लगभग 10,000 थाने हैं. यहां औसतन 729 लोगों पर एक पुलिसकर्मी है. लेकिन यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में यह औसत 1100:1 का है यानी 1100 लोगों पर एक पुलिसकर्मी. इसके अलावा पूरे देश में इस बल में पांच लाख पद खाली हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि 75 फीसदी पुलिस अधिकारियों को फैमिली क्वार्टर तक मुहैया नहीं है. देश में कुल 22.8 लाख पुलिस अधिकारी हैं. लेकिन उनमें से महज 5.6 लाख लोगों को ही फैमिली क्वार्टर मिला हुआ है. बाकी लोग या अपने परिवार से दूर रहते हैं या फिर किराये के मकानों में रहते हैं.

देश में सौ साल से लंबे अरसे से पुलिस सुधारों पर चलने वाली बहस भी अब तक परवान नहीं चढ़ सकी है. सुप्रीम कोर्ट के कई निर्देशों के बावजूद अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है. सोली सोराब जी समिति ने वर्ष 2006 में पुलिस अधिनियम का एक प्रारूप तैयार किया था. लेकिन उसकी रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में है. संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों के मुताबिक, हर साढ़े चार सौ लोगों पर एक पुलिसवाला होना चाहिए. लेकिन भारत में स्थिति एकदम उलट है. यहां राष्ट्रीय औसत 729 लोगों का है लेकिन कई राज्यों में यह आंकड़ा 11 सौ तक है. इससे तस्वीर का पता चलता है.

लेकिन आखिर ऐसी हालत क्यों है? रिपोर्ट में कहा गया है कि संबंधित राज्य सरकारें अपने कुल बजट का महज 3.1 फीसदी ही पुलिस पर खर्च करती हैं. पुलिस बल के आधुनिकीकरण के मद में केंद्र से मिलने वाली रकम के दूसरे मद में खर्च होने की खबरें अक्सर सुर्खियां बनती हैं. खासकर पूर्वोत्तर और झारखंड व छत्तीसगढ़ जैसे उग्रवाद और माओवाद से प्रभावित इलाकों में स्थिति चिंताजनक है. इन इलाकों में उग्रवादियों के पास जहां आधुनिकतम एके-47 और 56 के अलावा रॉकेट लॉन्चर तक मौजूद हैं वहीं पुलिस वालों को बाबा आदम के जमाने के हथियारों से उनका मुकाबला करना पड़ता है. नतीजतन उग्रवादियों या माओदियों के साथ होने वाली मुठभेड़ों में अक्सर पुलिसवाले ही ज्यादा मरते हैं.

आखिर सुधार कैसे होगा 

आखिर पुलिस बल की इस हालत में सुधार कैसे हो सकता है ? विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारें कानून व व्यवस्था बनाए रखने के इस सबसे अहम तंत्र के प्रति उदासीन हैं. तमाम दलों के नेता अक्सर पुलिस सुधारों और पुलिस बल के आधुनिकीकरण की बातें और दावे तो करते हैं. लेकिन उनको अमली जामा पहनाने के मामले में वह गंभीर नहीं हैं. देश में आजादी के बाद से ही पुलिस आधुनिकीकरण पर खास खर्च नहीं किया गया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक अधिकारी मानते हैं कि मणिपुर जैसे उग्रवाद प्रभावित राज्य के दुर्गम इलाकों में स्थित पुलिस थानों में मौजूदा दौर में भी फोन जैसी आधारभूत सुविधा का नहीं होना बेहद चिंताजनक है. केंद्र व राज्य सरकारों को तमाम थानों में आधारभूत सुविधाएं मुहैया करने को प्राथमिकता देनी चाहिए. एक पूर्व पुलिस अधिकारी प्रसून बनर्जी कहते हैं, “राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आने के बाद पुलिस बल का इस्तेमाल अपना राजनीतिक हित साधने के लिए करने लगती हैं. कोई भी पार्टी इस मामले में अलग नहीं है. इस वजह से पुलिस के आधुनिकीकरण का मुद्दा हाशिए पर चला जाता है.” वह कहते हैं कि पुलिस बल के आधुनिकीकरण के मसले पर कोई भी सरकार गंभीर नहीं है. राजधानियों और बड़े शहरों में तो फिर भी स्थिति ठीक है. लेकिन ग्रामीण इलाकों में तस्वीर बेहद दयनीय है.

माओवादग्रस्त राज्यों में सरकारों की दलील रही है कि माओवादी अक्सर पुलिस वालों से हथियार व वायरलेस सेट छीन कर उनके वाहनों में आग लगा देते हैं. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह दलील देकर संबंधित सरकारें अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकतीं. एक ओर तो पुलिस पर अत्याचार और फर्जी मुठभेड के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर वह कठिन हालात में आधारभूत सुविधाओं के बिना काम करने पर मजबूर हैं. इसी वजह से अक्सर पुलिसवालों पर रिश्वत लेने के भी आरोप लगते रहे हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र को एक ठोस रणनीति तैयार करनी होगी और  तमाम राज्य सरकारों के साथ मिल कर पुलिस बल के आधुनिकीकरण और खाली पदों पर बहाली के लिए समयबद्ध तरीके से उसे अमली जामा पहनाना होगा. ऐसा नहीं होने तक देश में विकास के साथ-साथ अपराध का ग्राफ भी तेजी से बढ़ता ही रहेगा.

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